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कंकाल-अध्याय -६३

गाला निरुपाय नीचे उतरी और बदन के पास पहुँचकर भी कई हाथ पीछे ही पीछे चलने लगी; परन्तु उस कट्टर बूढ़े ने घूमकर देखा भी नहीं। नये के मन में गाला का आकर्षण जाग उठा था। वह कभी-कभी अपनी बाँसुरी लेकर खारी के तट पर चला जाता और बहुत धीरे-धीरे उसे फूँकता, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया था, अब वह नहीं चाहता था कि वह किसी की ओर अधिक आकर्षित हो। वह सबकी आँखों से अपने को बचाना चाहता। इन सब कारणों से उसने एक कुत्ते को प्यार करने का अभ्यास किया। बड़े दुलार से उसका नाम रखा था भालू। वह भी था झबरा। निःसंदिग्ध आँखों से, अपने कानों को गिराकर, अगले दोनों पैर खड़े किये हुए, वह नये के पास बैठा है, विश्वास उसकी मुद्रा से प्रकट हो रहा है। वह बड़े ध्यान से बंसी की पुकार समझना चाहता है। सहसा नये ने बंसी बंद करके उससे पूछा- 'भालू! तुम्हें यह गीत अच्छा लगा?' भालू ने कहा, 'भुँह!' 'ओहो, अब तो तुम बड़े समझदार हो गये हो।' कहकर नये ने एक चपत धीरे से लगा दी। वह प्रसन्नता से सिर झुकाकर पूँछ हिलाने लगा। सहसा उछलकर वह सामने की ओर भगा। नये उसे पुकारता ही रहा; पर वह चला गया। नये चुपचाप बैठा उस पहाड़ी सन्नाटे को देखता रहा। कुछ ही क्षण में भालू आगे दौड़ता और फिर पीछे लौटता दिखाई पड़ी गाला की वृदावनी साड़ी, जब वह पकड़कर अगले दोनों पंजों से पृथ्वी पर चिपक जाता और गाला उसे झिड़कती, तो वह खिलवाड़ी लड़के के सामान उछलकर दूर जा खड़ा होता और दुम हिलाने लगता। नये उसकी क्रीड़ा को देखकर मुस्कराता हुआ चुप बैठा रहा। गाला ने बनावटी क्रोध से कहा, 'मना करो अपने दुलारे को, नही तो...' 'वह भी तो दुलार करता है। बेचारा जो कुछ पाता है, वही तो देता है, फिर इसमें उलाहना कैसा, गाला!' 'जो पावै उसे बाँट दे।' गाला ने गम्भीर होकर कहा। 'यही तो उदारता है! कहो आज तो तुमने साड़ी पहन ही ली, बहुत भली लगती हो।' 'बाबा बहुत बिगड़े हैं, आज तीन दिन हुए, मुझसे बोले नहीं। नये! तुमको स्मरण होगा कि मेरा पढ़ना-लिखना जानकर तुम्हीं ने एक दिन कहा था कि तुम अनायास ही जंगल में शिक्षा का प्रचार करती हो-भूल तो नहीं गये?' 'नहीं मैंने अवश्य कहा था।' 'तो फिर मेरे विचार पर बाबा इतने दुखी क्यों हैं?' 'तब मुझे क्या करना चाहिए?' 'जिसे तुम अच्छा समझो।' 'नये! तुम बड़े दुष्ट हो-मेरे मन में एक आकांक्षा उत्पन्न करके अब उसका कोई उपाय नहीं बताते।' 'जो आकांक्षा उत्पन्न कर देता है, वह उसकी पूर्ति भी कर देता है, ऐसा तो नहीं देखा गया! तब भी तुम क्या चाहती हो?' 'मैं उस जंगली जीवन से ऊब गयी हूँ, मैं कुछ और ही चाहती हूँ-वह क्या है तुम्हीं बता सकते हो।' 'मैंने जिसे जो बताया वह उसे समझ न सका गाला। मुझसे न पूछो, मैं आपत्ति का मारा तुम लोगों की शरण में रह रहा हूँ।' कहते-कहते नये ने सिर नीचा कर लिया। वह विचारों में डूब गया। गाला चुप थी। सहसा भालू जोर से भूँक उठा, दोनों ने घूमकर देखा कि बदन चुपचाप खड़ा है। जब नये उठकर खड़ा होने लगा, तो वह बोला, 'गाला! मैं दो बातें तुम्हारे हित की कहना चाहता हूँ और तुम भी सुनो नये।' 'मेरा अब समय हो चला। इतने दिनों तक मैंने तुम्हारी इच्छाओं में कोई बाधा नहीं दी, यों कहो कि तुम्हारी कोई वास्तविक इच्छा ही नहीं हुई; पर अब तुम्हारा जीवन चिरपरिचित देश की सीमा पार कर रहा है। मैंने जहाँ तक उचित समझा, तुमको अपने शासन में रखा, पर अब मैं यह चाहता हूँ कि तुम्हारा पथ नियत कर दूँ और किसी उपयुक्त पात्र की संरक्षता में तुम्हें छोड़ जाऊँ।' इतना कहकर उसने एक भेदभरी दृष्टि नये के ऊपर डाली। गाला कनखियों से देखती हुई चुप थी। बदन फिर कहने लगा, 'मेरे पास इतनी सम्पत्ति है कि गाला और उसका पति जीवन भर सुख से रह सकते हैं-यदि उनकी संसार में सरल जीवन बिता लेने की अधिक इच्छा न हो। नये! मैं तुमको उपयुक्त समझता हूँ-गाला के जीवन की धारा सरल पथ से बहा ले चलने की क्षमता तुम में है। तुम्हें यदि स्वीकार हो तो-' 'मुझे इसकी अकांक्षा पहले से थी। आपने मुझे शरण दी है। इसलिए गाला को मैं प्रताड़ित नहीं कर सकता। क्योंकि मेरे हृदय में दाम्पत्य जीवन की सुख-साधना की सामग्री बची न रही। तिस पर आप जानते हैं कि एक संदिग्ध हत्यारा मनुष्य हूँ!' नये ने इन बातों को कहकर जैसे एक बोझ उतार फेंकने की साँस ली हो। बदन निरुपाय और हताश हो गया। गाला जैसे इस विवाद से एक अपिरिचत असमंजस में पड़ गयी। उसका दम घुटने लगा। लज्जा, क्षोभ और दयनीय दशा से उसे अपने स्त्री होने का ज्ञान अधिक वेग से धक्के देने लगा। वह उसी नये से अपने सम्बन्ध हो जाना, जैसे अत्यन्त आवश्यक समझने लगी थी। फिर भी यह उपेक्षा वह सह न सकी। उसने रोकर बदन से कहा, 'आप मुझे अपमानित कर रहे हैं, मैं अपने यहाँ पले हुए मनुष्य से कभी ब्याह नहीं करूँगी। यह तो क्या, मैंने अभी ब्याह करने का विचार भी नहीं किया है। मेरा उद्देश्य है-पढ़ना और पढ़ाना। मैं निश्चय कर चुकी हूँ कि मैं किसी बालिका विद्यालय में पढ़ाऊँगी।' एक क्षण के लिए बदन के मुँह पर भीषण भाव नाच उठा। वह दुर्दान्त मनुष्य हथकड़ियों में जकड़े हुए बन्दी के समान किटकिटाकर बोला, 'तो आज से तेरा-मेरा सम्बन्ध नहीं।' और एक ओर चल पड़ा। नये चुपचाप पश्चिम के आरक्तिम आकाश की ओर देखने लगा। गाला रोष और क्षोभ से फूल रही थी, अपमान ने उसके हृदय को क्षत-विक्षत कर दिया था। यौवन से भरे हृदय की महिमामयी कल्पना गोधूली की धूप में बिखरने लगी। नये अपराधी की तरह इतना भी साहस न कर सका कि गाला को कुछ सान्त्वना देता। वह भी उठा और एक ओर चला गया।

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